शख्सियत

रिज़वान ज़हीर के सपा में जाने के बाद संसदीय क्षेत्र में सियासी बहस तेज़

बलरामपुर ज़िले में किसी दूसरे नेता का सियासी वजूद रिज़वान के बराबर नहीं

                                

       क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी- रिज़वान ज़हीर

(डा हमीदुल्लाह सिद्दीकी )

कुछ रोज़ पहले रिज़वान ज़हीर साहब (पूर्व विधायक,पूर्व सांसद) का समाजवादी पार्टी में एक बार फिर इस्तकबाल किया गया.. खबर सुनकर ग़ैरों के साथ कई अपने भी (सपा के,सपा से भी) ख़फा से लगने लगे हैं… यही नहीं चंद ऐसे लोग भी जिन्हें यह भी पता नहीं कि बैल की दुम किस तरफ होती है, वह भी पार्टी आला कमान को गुमराह करने के लिए पत्र लिख रहे हैं कि किसी मुस्लिम उम्मीदवार को  श्रावस्ती से लोकसभा का टिकट न दिया जाए.. चंद ऐसे नौजवान भी हैं जिनकी सियासी हैसियत किसी शराबी के टूटे हुए गिलास या किसी मौलवी के स्तिंजे के ढेले के बरबार भी नहीं है,मगर वह भी फेसबुक व व्हाट्सऐप ग्रूप पर न जाने क्या क्या कमेंट कर रहे हैं… बेशक अभिव्यक्ति की आज़ादी हर किसी को है,शायद इसी लिए किसी चौराहे के चायखाने में खैरात की चाय पीने वाला आम इंसान भी मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक पर तबसरे करता है, मगर हम सबको यह ख्याल रखना चाहिए कि जब हम अपने से बड़े और बेहतर शख्स के बारे में बात करें तो तमीज़ व तहज़ीब के दायरे से बाहर न जाऐं, शब्दों के चयन और रिश्तों की मर्यादा का ज़रूर ख्याल रखें, और किसी और की साज़िश का हिस्सा न बनें..

श्रावस्ती लोकसभा क्षेत्र जहां मुस्लिमों की अच्छी खासी आबादी है वहां मुस्लिम वर्ग के किसी नेता को टिकट न दिए जाने की साज़िशन ख़ुफिया मुहिम चलाना कितना उचित है, यह इस वर्ग के लोगों को ही सोचना होगा.. एक तरफ तो बुद्धजीवी वर्ग मुस्लिमों की सियासी व समाजी हिस्सेदारी बढ़ाने की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहा है,वहीं कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए पूरी कौम को गुमराह करने पर तुले हुए हैं.. 2009 और 2014 में बेशक मुस्लिम उम्मदीवारों को शिकस्त का सामना करना पड़ा था लेकिन शायद इसकी बुनियादी वजह दोनों का बाहरी होना और अंदरूनी साज़िश भी थी… अगर कोई क्षेत्रीय लीडर जिसका अपना निजी कैडर लगभग हर गांव में हो ,वह चुनाव लड़ता तो फतह यकीनी थी..

जहां तक रिज़ावन ज़हीर का सवाल है तो अभी बलरामपुर ज़िले में किसी दूसरे नेता का सियासी वजूद उनके बराबर नहीं है… 3 बार विधायक और 2 बार सांसद रह चुका कोई और दूसरा नेता जिले में नहीं है… जीत-हार के सवाल पर यहां यह बात भी स्पष्ट कर दूं कि रिज़वान साहब ने हर चुनाव खुद के जीतने के लिए नहीं लड़ा है ,बल्कि जिस पार्टी ने उनके साथ धोखा या अनदेखा किया,उस पार्टी के उम्मीदवार को हराने के लिए भी मौदान में कूदे हैं और इस लड़ाई में वह कामयाब भी रहे हैं.. जीत हमेशा फतह पाने का नाम नहीं बल्कि कभी कभी अपने मुखालिफ को कामयाब न होने देना भी होती है… रिज़वान साहब ने कितनी पार्टी बदली और किस पार्टी के पीठ में छुरा घोंपा है यह इल्ज़ाम लगाने वालों को अपना भी बैकग्राऊंड देखना चाहिए और सोचना चाहिए कि आखिर रिज़वान में ऐसी क्या खूबी है कि हर पार्टी उन्हें अपनाने को तैयार हो जाती है… बीजेपी में तो वह खुद भी कभी जाऐंगे नहीं और बाकी सभी पार्टियों के दरवाज़े आज भी उनके लिए खुले हैं.. सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि जनपद में कितने और ऐसे नेता हैं कि जिन्हें दूसरी पार्टीयों का हाईकमान जानता और पहचानता है और उन्हें दूसरी पार्टियां कबूल करने को तैयार भी हैं.. जो लोग रिज़वान जहीर के सपा में आने पर आज बैखलाए हुए हैं,कल वह कहां थे जब कल्याण सिंह को “ सपा का साथी “ बना लिया गया था ? जो नरेश अग्रवाल कल तक सेक्यूलरिज़्म और समाजवाद का स्तंभ  माने जाते थे.. आज वह बीजेपी की गोद में बैठे हुए हैं..यही नहीं जो लोग आज खुद को समाजवादी रहनुमा बता  कर लोगों को वरग़ला रहे हैं,कल वह भी भाजपाई न हो जाऐं इसकी गारंटी कौन ले सकता है ?

आज कौन किस पार्टी में है और कल किस पार्टी में चला जाए अब यह हैरान करने वाली बात नहीं रह गई है, हां हमें यह ज़रूर देखना चाहिए कि हम जिस नेता का चुनाव कर रहे हैं वह दूसरे बुरे नेताओं के मुकाबले कितना कम बुरा है या हम जिस पार्टी को चुन रहे हैं वह समाजी सरोकार के एतबार से दूसरी पार्टियों से कितनी कम खराब है.. क्योंकि आज के दौर में अच्छे और बुरे में चुनाव नहीं करना है, बल्कि बुरों में कौन कम बुरा है ,उसकी पहचान करनी ज़्यादा अहम है…

रिज़वान साहब को जितना मैं जानता हूं पिछले 20 सालों में उन पर कोई भी नया मुकद्मा नहीं लगा है और जो पुराने मुकद्मे थे भी, उनमें भी किसी में उनको कोई सज़ा नहीं हुई है.. जबतक किसी अदालत में किसी का जुर्म साबित न हो जाए या सज़ा न मिल जाए,उसूली तौर पर हम उसे मुजरिम या अपराधी नहीं कह सकते.. आज देश का लगभग हर बड़ा डान (शहाबुद्दीन,मुख्तार अंसारी और अतीक समेत कई और) जेल की सलाखों के पीछे हैं लेकिन रिज़वान ज़हीर अगर खुली फज़ा में आज़ाद और खुदमुख्तार तरीके से सांस ले रहे हैं तो कहीं न कहीं उन्होंने अपनी इमेज को बदलने के लिए अपना रास्ता भी बदला है… तमामतर मुखालिफ हवाओं के बावज़ूद उन्होंने अपना एक वजूद बरकरार रखा है.. 10 साल तक उनकी बेगम जिला पंचायत की अध्यक्ष रही हैं और उनकी कम उम्र बेटी पहली बार के चुनाव में ही एक सिटिंग विधायक से ज़्यादा वोट हासिल कर लेती है ,यह कम बड़ी बात नहीं है.. जिले में और भी कई बड़े लीडर हैं, उनका सियासी घराना कितना मज़बूत और काबिल-ए-एतबार है,यह भी ग़ौर करने की ज़रूरत है.. ज़िले के कई ऐसे नेता हैं जिनके बारे में पूरा इलाका जानता है कि उनके विधायक बनते ही उनका बेटा,भाई या भतीजा अवैध उगाही में लग जाता है..कोटेदार से लेकर थानेदार तक से कमीशन तय हो जाती है…और अगर कोई “ हफ्ता ” नहीं पहुंचाता है तो उसके खिलाफ जांच और मुकद्मे अलग शुरू हो जाते हैं.. चेले-चम्चों की अवैध खनन और अवैध कटान का कारोबार वैध तरीके की तरह ही चलने लगता है.. सत्ता कुछ खास जाति व खास लोगों के इर्द-गिर्द धूमने लगती है,मगर रिज़वान ज़हीर पर ऐसा कोई आरोप नहीं है..

हां,रिज़वान साहब पर यह इल्ज़ाम ज़रूर है कि वह किसी का फोन जल्दी नहीं उठाते हैं या किसी से आसानी से मिलते नहीं हैं, तो यह ऐसी कोई बात नहीं है कि जिसपर उन्हें बिरादरी से बाहर कर दिया जाए या उनपर फतवा लगा कर संगसार कर दिया जाए.. हर नेता की अपनी निजी ज़िन्दगी, मसरूफियत,मजबूरी या कमज़ोरी भी होती है.. वह किस से और क्यों नहीं मिलना चाहता है ,इसके पीछे उसका अपना कोई तल्ख तजर्बा भी हो सकता है, जिले में दूसरे भी कई ऐसे नेता हैं जो तीन-चार मोबाईल रखते हैं मगर ज़रूरत पड़ने पर आम आदमी किसी एक पर भी बात नहीं कर पाता है.. हमें सिर्फ नेताओं के किरदार व गुफ्तार पर उंगली नहीं उठानी चाहिए,बल्कि सियासत के गिरते मेयार और वोटरों के बदलते मिज़ाज पर भी ग़ौर करना चाहिए.. अब वोटर भी “मतदान ” नहीं “भुगतान ” चाहता है…शराब से लेकर नकद पैसे तक की फरमाईश करता है…बीवी और बेटी तक के वोट का सौदा कर लेता है..ऐसे में सिर्फ नेताओं से अच्छाई की उम्मीद करना बेमायनी है.. यह दर्द वह नेता ही बता सकता है जो हाल के दिनों में कोई चुनाव लड़ा हो, उसके लिए चुनावी मैदान,मैदान-ए-महशर से ज़्यादा आज़माईश का होता है,क्योंकि मैदान-ए-महशर में तो इंसान की अपनी नेकियां काम भी आ जाती हैं मगर चुनावी मैदान में तो बहुत से लोग एहसान फरामोश साबित हो जाते हैं,नेता को उन्हें भी गले लगाना पड़ता है जो हाथ मिलाने के लायक भी नहीं होते हैं…बहरहाल नेताओँ के लिए हर किसी को खुश रख पाना आसान काम नहीं है,100 लोगों में से 95 लोग अपनी किसी ज़ाती ज़रूरत के तहत नेता से संपर्क बढ़ाते हैं ,थाने और तहसील के मामलों में मदद चाहते हैं चाहे वह कसूरवार ही क्यों न हों.. बहुत कम ही लोग यानी 5 फीसद लोग ही ऐसे होंगे जो गांव या इलाके के विकास या जनहित से जुड़े मुद्दों को लिए नेताओं के चक्कर काटते होंगे..

जहां तक सवाल 2019 के चुनाव का है तो यह बात पहले से ही स्पष्ट है कि बलरामपुर की जनता एक बार किसी को जिताती है तो दुबारा उसे हराती भी है और किसी और को मौका देती है.. वर्तमान सांसद व विधायकों के साथ भी यह सानेहा पेश आ सकता है, ठाकुर-पंडित की आपसी खींचतान इतनी बढ़ चुकी है कि उसका फायदा समाजवादी पार्टी को मिल सकता है.. हिन्दू वर्ग में कई तबके ऐसे भी हैं जो रिज़वान साहब से निजी तौर पर बहुत करीब और सुरक्षित महसूस करते हैं… मुसलमानों के साथ उनका सहयोग भी रिज़वान साहब को निश्चित ही मिलेगा.. जनता अगर सांप्रदायिक हथकंडों से होशियार रही तो 2019 का चुनाव इस क्षेत्र के लिए एक नया बदलाव ज़रूर लाएगा… खास तौर पर दलितों व पिछड़ों को यह ज़रूर सोचना चाहिए कि अगर मुसलमान किसी यादव या दलित को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में मदद कर सकता है तो उन्हें भी किसी मुसलमान को विधायक या सांसद बनाने में मदद करने से कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए..

( उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा राज्य मुख्यालय से मान्यता प्राप्त पत्रकार डा.हमीदुल्लाह सिद्दीकी के फेसबुक वाल से साभार )

 

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